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बुधवार, 23 मार्च 2016

रंगो का त्यौहार : ट्रुबा सागर के द्वार


होली भारत वर्ष का एक ऐसा त्यौहार है जिसे निरा मद्ध्यमवर्गीय कहा जाए तो भी अतिश्यक्ति न होगी।  पढ़े लिखे, धनी मानी , तथाकथित आधुनिक और हिन्दी न जानने वाले 'सो काल्ड  इण्डियन्स ' को रंगो से एलर्जी होने लगी है, महंगा फेशियल करवाती बालाएं इस दिन से यूं भी दूर भागने लगी हैं और इंटरनेट  के ज़माने के , चायना से दोस्ती करने वाले हिन्दुस्तानी युवाओ को जब अपने पड़ोसी की खबर नहीं तो होली कौन खेलेगा!



एक मुआ मेरा मन !!! निरा  मध्यमवर्गीय संस्कारो से भरा  पड़ा ! अब भी मरता है इस त्यौहार पर , बचपन और कॉलेज की हुड़दंग  तो बेहद रंगीन हुआ करती थी , जब से पढ़ लिख कर शिक्षिका बनी, बस्स्स !!! विद्द्यार्थियों  ने पैरो  पर ही गुलाल छिटका है , और शादी के बाद  तसव्वुर भी नहीं कर सकती होली का , मिया को शरारत , बेहूदगी और रंग इन सबसे ही विरक्ति है.........



             फ़ाग का महीना आता है और मेरे अंदर का रंग प्रेमी कसमसा कर जाग उठता है , उस बेचारे को थपक थपक कर  सुलाती ही रहती हूँ वह भी अपने शोध के बेहद रंग भरे विषय को दरकिनार कर.  थोड़े रंग जो नज़र आते हैं वह हैं कॉलेज केम्पस की प्रकृ ति से रची पची  बागड़ो में।  जिस लिए  यह कॉलेज ज्वाइन किया था 



 ........ यही एकमात्र वजह..... सातो रंगो की इंद्रधनुषी आभा से भरे बोगेन बेलिया , दो रंगो वाले गुलमोहर,  , पीले होते कदम्ब और कचनारी टेसू......... दूर क्षितिज को छूती  पहाड़ियाँ , हरी हरी घास के सुन्दर मैदान और  उन पर बिखरे ज़र्द पीले पत्ते , एप्लाइड साइंस  के बड़े बड़े झरोखो से फूट पड़ती उगते और डूबते सूरज की रश्मियाँ , और हाथ पकड़ कर ज़िद करते देवदार के वृक्ष ........रंगो और छटाओं का इतना सुन्दर समन्वय कि प्रकृति अपने हर रूप में यहाँ आठो पहर होली ही खेलती लगती है। दूर सुन्दर ऊंचे वृक्षों की हरीतिमा, स्वच्छ आकाश की नीलाभ छटा , दूर झांकते तालाब की हरी भूरी  जल तलछटे !!! जिस परमात्मा ने इस भूखंड को रचा होगा उसके हाथ कितने रंगीन होंगे!!!! मेरा बस चले तो वर्डसवर्थ को हाथ पकड़ कर ले आउ , उससे कहूँ,  " देखो ! संसार  में टिटर्न एबे से भी सुन्दर जगह मौजूद है।!!!! 
                         सब कुछ यथावत था , इस खबर से पूर्व कि कैम्पस में कोई होली-मिलन जैसा समारोह भी होने जा रहा  है , संस्कृति के नाम पर भौंडे सीरियल्स और परम्पराओ  के नाम पर उलटे सीधे गानो पर नाचते आधुनिक तकनीकी महाविद्द्यालयो में " होली मिलन"  जैसा  सुन्दर सा कुछ होगा  ......... सभी के लिये कल्पना से परे  था.  सुन्दर से ऑडीटोरियम में  कुछ उत्साही , कुछ कुछ उत्फुल्लित से हम  सब के सब प्राद्ध्यापक  अपने अपने विभागानुसार बैठ गए।

                             नए चेयरपर्सन सर " इंजीनियर संजीव अग्रवाल जी" अपने परिवार समेत अपने " मानस परिवार " को सम्बोधित करने आये थे। मंच पर डाइरेक्टर सर " डा. सुधीर अग्रवाल जी,  माननीय श्री दुबे जी  (फाउंडर डाइरेक्टर ट्रुबा )  और ई.डी. सर  श्री प्रशांत जी के साथ " ई. श्री संजीव  जी " अपने परिवार के साथ बैठे थे। पारम्परिक से परिधान में लिपटी श्रीमती अग्रवाल की सौम्य मुखमुद्रा और सुंदर से तोहफों के अलावा अब हॉल में कुछ भी कुतूहल नहीं था।माँ सरस्वती का आव्हान करती कोकिल कण्ठित  सविता मेडम के सुरों में कार्यक्रम की शुरुआत की।  
                          धूप  ध्यान के बाद , हल्की फुल्की मन की बाते , कुछ अपनी और कुछ साथियो की।  तत्पश्चात होली के उपलउपलक्ष्य में अल्पाहार और थोड़ी बहुत सांस्कृतिक गतिविधि।  सबसे अच्छी जो बात थी वह थी , " हर व्यक्ति को निर्बाध रूप से स्वयं को अभिव्यक्त करने का  एक स्वतंत्र मंच देना " इसी का सबसे सुन्दर और स्वतंत्र रूप था , श्री विशाल अच्वाल जी की मिमिक्री " और सविता मेडम की स्वरसाधना।  आदरणीय गुप्ता मेडम के आग्रह पर जब मंच पर आयी मेरा मन था लहक लहक कर तान छेड़ूँ  " पिया तोसे नैना लागे रे। ....... " लेकिन याद आयी, "औरतों के नौकरी करने के सख्त खिलाफ मेरे प्यारे पिया की कसम " गाना कभी भी नहीं गाओगी " मरती क्या न करती , मन मार कर एक ग़ज़ल की चंद  पंक्तियों में समापन कर आगे का रुख किया  ...... 
        अपने अनौपचारिक सम्बोधन के बाद जब होली के सुन्दर से तोहफों  का समय आया तो उसने मन जीत ही लिया।  सुन्दर, कलात्मक और सुरूचिपूर्ण ढंग से तैयार की गयी तोहफादानी; रजत आभा से दमकती पृष्ठ भूमि के बीच  मध्ययुगीन  सुंदरी " बनी ठनी " का प्यारा सा तैलचित्र और उसमे रखी अपनेपन के रंगो की सुन्दर सी डिबिया, सीधे सूत के कच्चे धागे जो सन्देश देते हैं , "जुडो तो अपनेपन से " होली मनी , ठिठौली  हुई , उसके बाद रिज़ल्ट और विकास की गहन गंभीर चर्चा, और लम्बी अवकाश की घोषणा "    

सब कुछ प्यारा था , जो मन को भा गया वह था रंगो के साथ किया गया प्रेम आव्हान : "  काम करो , सब मिल कर करो , संस्था को अपना प्राण मान कर करो , विकास तुम्हारा भी है , हमारा भी।मैं एस आईआरटी -ट्रुबा नहीं, मेरी पत्नी या बेटी भी नहीं , तुम अकेले भी नहीं वरन हम सब हैं , " एसआई आरटी -ट्रुबा " हमारे साझेपन से ही विकास है, और हैं सुन्दर भविष्य के साकार सपने।  " सुना था ,  रतन टाटा  जैसे बड़े उद्द्योगपति  खुद  को कभी अपनी संस्था का मालिक नहीं कहते थे ,  वह कहते थे , ये संस्था  मेरी मालिक है......विदेशी यूनिवर्सिटी में शोध का विषय रहे इस बड़े व्यक्ति को हमेशा अपने  मैकेनिक्स  के साथ सफ़ेद पाजामे कुर्ते में काले हाथ किये कोई भी देख सकता था.....अकबर हो या मोदी जी , स्वयं को अपनी  संस्था से सीधे जोड़े रखना एक अच्छे मैनेजर  का सबसे बड़ा गुण है........ और विकास का लक्षण भी।  
                                       यह होली यादगार होली थी , और शांतिनिकेतन के बाद किसी संस्थान के साथ मनाई गयी मेरी दूसरी यादगार होली भी।
                         रंग मनते रहें , बंदनवार सजते रहें , हम यूं ही साझी और सफलता की होलियाँ मनाते रहें 
                                                     मंगल कामनायें 
                                                                                शुभ होली   
                                                                                             जय  जय........  






रविवार, 20 मार्च 2016

मिलन



             सागर की उत्ताल तरंगो के वेग ने जब " ट्रुबा " को गले लगाया , हर कोई इस परिवर्तन के लिए तय्यार नहीं था।  कुछ सहमा, कुछ झिझका सा किनारे खड़ा " ट्रुबा "  का  स्टाफ  सांस रोकता सा इस महामिलन को देख रहा था........
                          अचानक........

                                         आश्चर्य.......
                                                           अद्भुत !!!!


    जी हाँ!!!  अब हम हैं  " ट्रुबा सागर " :



इस महामिलन हेतु मंगल  कामनाएं----------।